जब हम दलित शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो सहज ही हमारे सम्मुख एक ऐसे दीन हीन, लाचार, शोषित, कृषकाय वर्ग की छवि उभरती है जो हमारे समाज में सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा हुआ संघर्षरत वर्ग है। समाज में किसी संभ्रांत व्यकित को यदि हम मजाक में भी दलित कह देंगे तो उसे वह बात गोली की तरह लगेगी। सामान्य तौर पर हम दलित का अर्थ शूद्र वर्ण वाले व्यकित समाज के तौर पर लेते हैं। किन्तु आज इस दलित-विमर्श पर विचार व्यक्त करते हुए मुझे घोर आश्चर्य हो रहा है कि इस भूमंडलीकरण के दौर में जहाँ हर व्यकित उपभोक्ता मात्र है और सकल विश्व बाजार के रूप में देखा जा रहा है वहाँ दलित-विमर्श की आखिर आवश्यकता क्यों महसूस की गयी? इसका सीधा सा उत्तर मेरी समझ में आया कि आज हम भले अपने आपको इक्कसवीं शताब्दी का कहें किन्तु हमारी मानसिकता (खासतौर पर भारतीयों की) आज भी 18वीं शती की ही है। हम अपने स्वार्थ के कारण अपने को आधुनिक मान रहे हैं। वस्तुत: आज भी हम मनु स्मति के विचारों को हृदय से स्वीकार किए हुए हैं।
© 2001-2024 Fundación Dialnet · Todos los derechos reservados